
बोरे गांव की जयकुमारी चौहान ने पिता के निधन पर निभाया बेटा का फर्ज, किया अंतिम संस्कार
सारंगढ़ टाईम्स न्यूज/सारंगढ़
परंपराएं जब बदलती हैं तो समाज में नई सोच का जन्म होता है। यही हुआ सारंगढ़-बिलाईगढ़ जिले के बरमकेला ब्लॉक अंतर्गत बोरे गांव में, जहाँ एक बेटी ने बेटे का फ़र्ज़ निभाकर न सिर्फ अपने पिता को सच्ची श्रद्धांजलि दी, बल्कि पूरे समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया। बोरे गांव की जयकुमारी चौहान के पिता विद्याधर चौहान का हाल ही में निधन हो गया। परिवार पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन इस दुख के बीच समाज की पुरानी परंपराएं और रिवाज भी सामने आ खड़े हुए—जहाँ अंतिम संस्कार और पिंडदान का हक केवल बेटों को दिया जाता है। लेकिन जयकुमारी ने साहसिक कदम उठाया। उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के आगे बढ़कर बेटे की भूमिका निभाई। पूरे समाज और परिजनों की मौजूदगी में उन्होंने मुंडन कराया और विधि-विधान से पिंडदान की रस्म पूरी की। “मैंने हमेशा अपने पिता के लिए बेटा बनकर जिया”
जयकुमारी चौहान की आँखों में आँसू थे, लेकिन मन में दृढ़ संकल्प भी। उन्होंने कहा –“मेरे पिताजी ने हमेशा मुझे बेटे की तरह माना। घर के हर फैसले में उन्होंने मुझे शामिल किया। उनकी सेवा करने और उनका सहारा बनने का मौका मुझे हमेशा मिला। इसलिए जब यह समय आया, तो मैंने वही किया जो एक बेटा करता। आज मुझे लगता है कि मैंने अपने पिता को सच्ची श्रद्धांजलि दी।”
ग्रामीणों की भावनाएँ
गांव के बुजुर्गों और परिजनों ने भी जयकुमारी के इस निर्णय की सराहना की। एक पड़ोसी ने कहा –“यह पहली बार है जब हमारे इलाके में किसी बेटी ने यह जिम्मेदारी निभाई है। यह साहसिक कदम आने वाली पीढ़ी के लिए मिसाल बनेगा। अब बेटा-बेटी का फर्क खत्म होना चाहिए।” गांव की अन्य महिलाएँ भी इस घटना से भावुक हो गईं। उन्होंने कहा कि जयकुमारी ने साबित किया है कि बेटियां सिर्फ आंसू बहाने के लिए नहीं, बल्कि हर जिम्मेदारी निभाने के लिए पैदा होती हैं। परंपरा और बदलाव
भारत के कई हिस्सों में अब भी ऐसी परंपराएं हैं जहाँ बेटियों को अंतिम संस्कार में सीमित भूमिका दी जाती है। लेकिन धीरे-धीरे समाज बदल रहा है। बेटियां आज हर क्षेत्र में बेटों से कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हैं। चाहे शिक्षा हो, नौकरी हो, या फिर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ—बेटियां हर जगह आगे बढ़ रही हैं। जयकुमारी चौहान का यह कदम इस सोच को और मजबूती देता है कि अंतिम संस्कार जैसी जिम्मेदारी भी अब सिर्फ बेटों की बपौती नहीं रही। यह घटना न सिर्फ बोरे गांव या सारंगढ़ जिले के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक बड़ी सीख है। बेटियां भी संस्कार निभाने में बेटों से पीछे नहीं।परिवार की इज़्ज़त और परंपराओं को निभाने में लिंग का कोई बंधन नहीं। सोच बदलेगी तो समाज और मज़बूत होगा। बोरे गांव की जयकुमारी चौहान ने अपने पिता को खोने का दर्द सहते हुए भी बेटे का कर्तव्य निभाया। यह कदम आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है। यह कहानी हर उस बेटी के लिए संदेश है, जिसे समाज ने केवल घर की “लक्ष्मी” समझा है—कि जरूरत पड़ने पर वह बेटे का फ़र्ज़ भी निभा सकती है। जयकुमारी चौहान का साहस और दृढ़ता यह साबित करती है कि अब समय आ गया है जब बेटियों को केवल बेटी नहीं, बल्कि बेटे के समान ही देखा जाए।